अल्लाम और बेटा
नैयर मसूद
मैं जनता हूँ, पहले भी जानता था, कि एक उम्र को पहुँच कर आम आदमी कई हज़ार, या शायद कई लाख, बातें भूलने लगता है लेकिन कई बरस तक उसको पता नहीं चलता के उसके हाफ़ज़े से कुछ गायब हो रहा है। उसकी यादों का ज़खीरा इतना बड़ा है कि उसमें से हज़ारों लाखों चीज़ों का लगातार गुम होते रहना एक मुद्दत तक उस ज़खीरे में किसी नुक़सान का शुबह पैदा नहीं करता। इसीलिए अपनी मुलाज़मत की मुद्दत ख़त्म होने से पहले मैं इस हक़ीक़त को महसूस किये बगैर क़बूल कर चुका था कि अब मैं हर रोज़ बहुत कुछ भूल रहा हूँ। फिर मुझ पर बेवक़ूफी का सा दौरा पड़ा और मेरा बहुत सा वक़्त ये याद करने की बेहासिल कोशिश में बर्बाद होने लगा कि मैं क्या क्या भूल रहा हूँ। फिर मैं कोशिश कर के इस दौरे से निकल गया। लेकिन बहुत दिन नहीं गुज़रे थे कि मुझ पर बेवक़ूफी का इससे भी बड़ा दौरा पड़ा और मैंने ये याद करने की कोशिश में वक़्त बर्बाद करना शुरू कर दिया कि कौन कौन सी चीज़ें मेरे हाफ़ज़े से ग़ायब नहीं हुई हैं। ये कोशिश बेहासिल नहीं थी लेकिन इससे मुझको उलझन के सिवा कुछ हाथ नहीं आता था।
इसी शग़ल के ज़माने में मेरी मुलाज़मत की मुद्दत पूरी हुई और मेरे पास बर्बाद करने के लिए वक़्त की फ़रावानी हो गयी। इस शग़ल में बहुत सा वक़्त बर्बाद करके आख़िर मैंने समझ लिया कि मेरी यादों के ज़ख़ीरे में जो कुछ बाक़ी है उसका शुमार मुमकिन नहीं। मुझको बहुत बातें याद आयीं लेकिन उनमें ग़ैर मामूली बातें बहुत कम थीं। मुझ पर उकताहट का दौरा पड़ा और वो गिनी चुनी ग़ैर मामूली बातें भी मुझको मामूली मालूम होने लगीं।आख़िर मैंने ये शग़ल भी तर्क कर दिया।
इसके बाद मेरा हाफ़ज़ा और भी कमज़ोर हो गया। अब मुझको याद करने की ज़रुरत नहीं पड़ती थी कि मैं क्या क्या भूल रहा हूँ। लोगों के नाम, सूरतें, गुज़रे हुए वाक़ियों की तफ़सीलें और बहुत सी छोटी-बड़ी बातें जिनका याद होना मुझे अच्छी तरह याद था, अब दिमाग़ पर ज़ोर डालने के बाद भी याद ना आती थीं। उसी ज़माने में या उसके कुछ बाद, मुझे ठीक याद नहीं, मेरा हाफ़ज़ा ग़लतियाँ भी करने लग। कभी मैं किसी दोस्त को किसी दूसरे के नाम से पुकारता, कभी ज़्यादा दिन के बाद किसी शनासा से मुलाक़ात होती तो उसे कोई और शनासा समझ लेता, किसी एक वाक़िये की तफ़सीलों में दूसरे वाक़ियों की तफ़सीलें शामिल कर देता। इससे कभी-कभी दुश्वारियाँ पैदा होतीं, लेकिन मुझे परेशानी नहीं होती थी। ये नौबत आने का मुझे पहले ही से इल्म था और मैं इस हक़ीक़त को भी क़बूल करने पर तैयार था।
लेकिन इस ज़माने में भी अपने बचपन और लड़कपन की बेशुमार यादें मेरे हाफ़ज़े में ताज़ा थी। मेरे घर के बच्चे मुझसे इस ज़माने के क़िस्से बड़े शौक़ से सुनते थे हुए हैरत भी करते थे कि मुझको इतनी पुराणी बातें इतनी अच्छी तरह याद हैं। मुझे हैरत नहीं होती थी। मैं जनता था कि बचपन की यादें आदमी के दिमाग़ में उस वक़्त भी महफ़ूज़ रहती हैं जब वो ढलती उम्र में दो दिन पहले तक की बातें भूलने लगता है।
इसी ज़माने में एक बार मैं बदलते हुए मौसम में बीमार पड़ गया। कई दिन तक एक तेज़ बुखार चढ़ा रहा और बच्चों को मेरे पास आने से रोक दया गया। तबीयत ठीक होने के बाद घरवालों से मालूम हुआ कि मैं बुख़ार की ग़फ़लत में मुसलसल बोलता रहा हूँ। उन्होंने ये भी बताया कि मैं आँखें बंद किये किये अपने बचपन के वही क़िस्से ज़्यादा तफ़सीलों के साथ बयान करता रहता था जो बच्चे मुझसे सुना करते थे।
तब मुझ पर इंकिशाफ़ हुआ कि अब मुझको अपने बचपन की भी कोई बात याद नहीं रह गयी है।
इस हक़ीक़त को क़बूल करने पर मैं तैयार नहीं था इसलिए मुझ पर बेवक़ूफी का तीसरा दौरा पड़ा और मैंने बच्चों से वही क़िस्से सुनना शुरू कर दिये जो वो मुझसे सुना करते थे। जब इससे कुछ हासिल ना हुआ तो मैंने ज़हन पर ज़ोर दे दे कर अपने बचपन को याद करने की कोशिश कीं।
इससे भी कुछ हासिल नहीं हुआ तो मैंने एक और तदबीर सोची। बीमारी से पहले कभी-कभी मेरे ज़हन में अचानक कोई मंज़र सा चमकता और मुझको ये समझने में देर न लगती कि ये मेरे बचपन की किस याद का मंज़र है। अब में रातों को सोने का वक़्त आने से पहले ही आँखें बंद करके लेट जाता और जहाँ तक हो सकता अपने दिमाग़ को ख़यालों से ख़ाली कर लेता। फिर बंद आँखों के अँधेरे में कुछ देखने की कोशिश करता। ज़्यादातर कोशिश बेहासिल रहती और इसी में मुझको नींद आ जाती लेकिन कभी-कभी इस अँधेरे में कहीं पर बहुत धुँधली रोशनी का धब्बा-सा बन जाता और उसमें लम्हे भर के लिए कोई बेहरकत तस्वीर झलक कर ग़ायब हो जाती। मुझे यक़ीन था कि उन तस्वीरों का ताल्लुक़ मेरे बचपन की यादों से है, लेकिन इस यक़ीन था कि उस तस्वीरों का ताल्लुक़ मेरे बचपन की यादों से है, लेकिन इस यक़ीन के सिवा इस शग़ल से भी मुझे कुछ हाथ ना आया। दिमाग़ पर ज़्यादा से ज़्यादा ज़ोर देने के बाद भी मेरी समझ में ना आता कि उनमें किस तस्वीर का ताल्लुक़ किस याद से है। तस्वीरें भी अजब मुबहम होती थीं। कभी किसी घने दरख़्त के नीचे खड़ी हुई बैलगाड़ी और बरसाती पानी में उसका अक्स। कभी हाथ में छोटा सा नक़्क़ारा लये हुए कोई फ़क़ीर, कभी कनातों से घिरे हुए किसी कच्चे सहन में ईंटों के चूल्हों पर चढ़ी हुई ताँबें की क़लइदार देगी और आधे सहन में फैली हुई धूप। तरह मर्दानी और ज़नानी पोशाकें बहुत होती थी लेकिन उनके पहनने वालों के चेहरे नज़र नहीं आते थे या उन तक मेरी नज़र पहुंचने से पहले ही तस्वीर पड़कर ग़ायब हो जाती थी। पुरानी वज़अ की ये पोशाकें ज़्यादातर अच्छी तराश ख़राश और शोख़ रंगों की होती थीं। उनमें गुलाबी, फ़िरोज़ी, ज़र्द और ऊदे रंग बहुत होते थे, और काला रंग कभी नहीं होता था।
लेकिन एक रात मैंने देखा कि एक धुँधली पड़ती हुई रंगीन पोशाक पर स्याह कपड़े का पारचा सा बन कर ग़ायब हो गया। उस रात मैंने ये मंज़र कई मर्तबा देखा। अगली रात वो पारचा देर तक दिखायी दिया और मैंने उसे पहचान लिया। ये भी एक तरह की पोशाक थी जो किसी बेसिले कपडे के बीच में डेढ़ बालिश्त का शिगाफ़ फाड़ कर तैयार कर ली जाती थी। शगाफ़ में सर डाल कर कपड़े के दोनों पल्लुओं से खुली हुई बेआस्तीन की ये पोशाक ज़्यादातर सफ़ेद रंग की होती थी। इसे देखकर मुरदों का कफ़न याद आता था और ये कफ़नी कहलाती थी, लेकिन से ज़िंदा लोग पहनते थे और ये बहुत कम देखने में आती थी।
स्याह कफ़नी ग़ायब हुई और फिर नज़र आयी। इस बार इसमें दूसरी पोशाकों बरख़िलाफ़ कुछ जुंबिश भी थी जैसे उसके पहनने वाले का बदन थर थरा रहा हो, फिर वो धुँधली पड़ने से पहले अचानक गायब हो गयी और उसीके साथ मेरे दिमाग़ में थरथराहट होने लगी। मैं देर तक कफ़नी के दोबारा ज़ाहिर होने का इंतज़ार करता रहा लेकिन वो फिर नज़र नहीं आयी। कोई और पोशाक भी नहीं दिखायी दी।
उस रात के बाद से तसवीरों का सिलसिला टूट गया। अब मेरी बंद आखों के सामने कोई खाली धब्बा तक नहीं बनता था। इस तरह जो तमाशा मैंने कई रातों को देखा था वो ख़त्म हो गया और मैंने फिर से बिस्तर पर सिर्फ़ उस वक़्त लेटना शुरू कर दिया जब नींद से मेरी आँखें अपने आप बंद होने लगती थी।
अब मेरे पास घर पर वक़्त बर्बाद करने का कोई तऱीका नहीं रह गया था इसलिए मैंने फिर से घूमने फिरने और दोस्तों में बैठ कर इधर-उधर की बातें करने के लिए घर से बहार निकलना शुरू कर दिया। पहले ये मेरा क़रीब क़रीब रोज़ का दस्तूर था लेकिन हाफ़ज़े की गलतियाँ बढ़ जाने के बाद से मैंने ये सिलसिला ख़त्म कर इसलिए कि उन ग़लतियों ने कई बार दोस्तों को मुझसे आरज़दा और मुझको शनासाओं से शर्मिंदा कराया और कभी-कभी मेरी हँसी भी उड़वायी थी, लेकिन अब, बीमारी से उठने के बाद, जब मैं उनके साथ बैठता था तो वो ख़ुद अपने हाफ़ज़े की भी गलतियों के किस्से सुनाते लगते थे। एक दिन मैं कई दोस्तों के साथ बैठा था और पहचान की ग़लतियों का ज़िक्र छिड़ा हुआ था। क़हक़हे भी लग रहे थे। उसी में एक दोस्त ने कहा :
“मुझे तो किसी आशना को अजनबी समझ लेने पर इतनी परेशानी नहीं होती। माफ़ी वाफ़ी माँग कर काम बना लेता हूँ। लेकिन जब अजनबी आदमी पर किसी आशना का धोका हो जाता है... ”
अब ये किस्से चीड़ गये। क़रीब क़रीब हर दोस्त ने अपना कोई किस्सा सुनाया। बाजके किस्से ख़ासे तविल और वाक़ई दिलचस्प थे।
“हाँ, मेरे साथ भी अक्सर ऐसा होने लगा है, “एक दोस्त जो देर से चुप था, बोलै,“लेकिन अभी पिछले हफ्ते एक अजीब इत्तेफ़ाक़ हुआ।” वो कुछ रुका, फिर बोलै, “मुझ पुराने बाज़ार में दूर पर ये ज़ात शरीफ़ नज़र आये,” उसने एक दोस्त की तरफ़ इशारा किया,“मगर क़रीब पहुँच कर पता चला कोई और बुज़ुर्गवार हैं...”
“आजमाएं बताता हूँ,” उस दोस्त ने कहा, “उधर उन बुज़ुर्गवार को भी तुम पर अपने किसी दस्त का धोका हुआ और देर तक तुम दोनों...”
“बात तो पूरी होने दिया करो,” पहला दोस्त बोला, “तो क़रीब पहुँच कर पता चला वो तुम नहीं थे। लेकिन थोड़ी ही देर बाद क्या देखता हूँ कि सामने से असलियत में तुम चले आ रहे हो। गोश्त पोश्त में, और इसी मनहूस चेहरे के साथ।”
एक झटके के साथ मेरे दिमाग़ में कोई ख़ाना सा खुल गया। मुझे याद आया कि मेरे साथ ऐसा इत्तेफ़ाक़ बारहा हो चुका है, इतनी बार कि उसे इत्तेफ़ाक़ नहीं कहा जा सकता, बल्कि ऐसा इत्तेफ़ाक़ कभी नहीं हुआ कि मुझे किसी अजनबी पर अपने जिस शनासा का धोका हुआ हो, कुछ देर बाद वही शनासा नज़र ना आ गया हो। अगर इसमें ज़्यादा देर लगती तो मुझको बेचैनी होने लगती, लेकिन आख़िर वो शनासा नज़र ज़रूर आ जाता था। ये मेरी ज़िन्दगी की सबसे ग़ैर मामूली बात थी जो मुझे उस ज़माने में याद नहीं आयी थी जब मैं अपनी बाक़ी माँदा यादों का शुमार किया करता था।
दोस्तों में अब भी गुफ्तगू छिड़ी हुई थी। कई दोस्तों के साथ ऐसा इत्तेफ़ाक़ पेश आया था लेकिन किसी के साथ एक मर्तबा से ज़यादा पेश नहीं आया था।
“हाँ” उसके क़िस्से सुनाने के बाद मैं बोला, “मेरे साथ भी ऐसा हुआ है।”
लेकिन मैंने अपना कोई किस्सा नहीं सुनाया। मुझे कुछ अफ़सोस भी था कि दूसरों के साथ एक बार भी ऐसा क्यूँ हुआ।
इसके बाद दूसरी बातें होने लगीं।
अगले हफ़्ते मैं अपने साथ के खेले हुए एक दोस्त के साथ पुराने बाज़ार में, जो पहले बड़ा बाज़ार कहलाता था, घूम रहा था। कई दिन के रुँधे हुए बरसाती मौसम की इस तबदीली से पहले के मौसम, की बातें कर रहे थे कि धूप ग़ायब होना शुरू हुई और देखते देखते फ़िज़ा पहले से भी ज़यादा धुँधला गयी। मेरे ोस्ट ने मुँह बनाकर कहा :
“समझ में नहीं आता बादल अचानक कहाँ से निकल पड़ते हैं।”
“ ना ये समझ में आता है कि अचानक कहाँ ग़ायब हो जाता हैं, मैंने कहा :
उसी वक़्त मुझे दूर पर एक दाढ़ीवाला स्याहपोश आदमी आता दिखायी दिया। मेरे दिमाग़ में फिर एक ख़ाना सा खुला और मेरे मुँह से निकला :
“अल्लाम !”
फिओर मुझे आप ही आप हाँसी आ गयी।
“अल्लाम ?” दोस्त ने पूछा।
“अल्लाम को भूल गये ?” मैंने भी पूछा, हालाँकि ख़ुद मुझको भी वो अभी-अभी याद आया था।
“अल्लम को भी कोई भूल सकता है?” दोस्त बोलै, “लेकिन इस वक़्त वो मरहूम ओ मग़फ़ूर कहाँ से याद आ गया ?”
आदमी हमारे क़रीब आता जा रहा था। चन्द क़दम का फ़ासला रह गया तो मैंने नज़र भर कर उसे देखा। उसकी सूरत अल्लम से बिलकुल नहीं मिलती थी। लम्बे स्याह पेरहन की ढीली ढीली आस्तीनें क़रीब क़रीब कन्धों तक चढ़ाये और बड़ी बड़ी आँखों में सुर्मा लगाये हुए वो आदमी किसी मज़ार का मुजावर सा मालूम होता था। वो हमारे बराबर से हो कर गुज़र गया। मेरा दोस्त कुछ कह रहा था। मैं उसकी तरफ़ मुतवज्जह हुआ। उसने फिर वही बात कही :
“अल्लाम को भी कोई भूल सकता है?”
“मैं भूल चूका था, “मैंने कहा।
“और उसका बेटा? उसे भी भूल गये?”
“उसका बेटा? अच्छा वो भेड़िया? हाँ याद आया। उसने तुम्हे काट खाया था।”
“बोटी उतार ली थी कम्बखत ने। ये देखो, “उसने मुझे अपनी दाहिनी कलाई पर ज़ख़्म का निशान दिखाया। उसके बाद हम दोनों अल्लाम की बातें करने लगे। बहुत सी बातें मुझको ख़ुद याद आ गयी थीं, कुछ दोस्त ने याद दिलायीं। एक बात जो मैंने उसे याद दिलायीं ये थी कि अल्लाम हमेशा काले कपड़े की कफ़नी पहने रहता था।
वो कभी कभी मेरे बाप के पास अत था और अगर मैं उसे फाटक के पास खेलता मिलता तो दूर ही से पुकार कर कहता था :
“छोटे साहब, डिप्टी साहब को बोल दीजिये अल्लाम बदमाश खिदमत में हाज़िर है।”
मेरे बाप किसी भी किस्म के डिप्टी नहीं थे। वो शहर की सबसे बड़ी दरसगाह में पढ़ाते थे। दरसागर. की शान के मुताबिक़ उनका रहन-सहन आला सरकारी अफसरों का सा था और वो हमेशा ज़ाती सवारी पर घर से बाहर निकलते थे। इसलिए हमारे मुहल्ले वाले, जो ज़्यादातर मामूली हैसियत के कम पढ़े हुए लोग थे, उनको डिप्टी साहब कहते थे। मैं उन्हें अल्लाम के आने की इत्तला करता तो वो उससे मिलने के लिए बरामदे में आ जाते थे और कभी बरामदे में खड़े-खड़े, कभी उसको बाहरी कमरे में बिठाकर, देर देर तक उससे बातें किया करते थे। घर में भी वो उसका ज़िक्र करते और बताते थे कि अल्लाम उनके लड़कपन का साथी है और कुछ दिन तक उनका हम जमात भी रहा है। उन्हीं से मुझको ये मालूम हुआ था कि वो शहर के एक मशहूर और इज़्ज़तदार मज़हबी घराने का लड़का था और पढ़ने में तेज़ था लेकिन बुरी सोहबत में पड़ गया था। उसकी मुसलसम नाफ़रमनियों और सरकशी से हार कर बाप ने उसे घर से निकल दिया, फिर उससे बेताल्लुक़ी का ऐलान कर दिया था। उसके बाद से उसकी शुरापशती बढ़ती गयी और अब वो ज़्यादातर शहर के नामी बदमाशों की एक टोली के साथ देखा जाता था। ये क़ानून शिकन लोग थे। औरतें भगा कर लाना उनका ख़ास काम था और उनकी कारस्तानियों की लपेट में आकर कभी-कभी अल्लाम भी हवालात में बन्द कर दिया जाता था। इसकी इत्तला वो किसी ज़रिये से हमारे यहाँ भेजवाता और मेरे बाप उसको ज़मानत पर रिहा करवा लेते थे। हवालात से निकल कर वो सीधा हमारे यहाँ आता और मुझे फाटक पर खेलता देख कर वही एक बात कहता :
“छोटे साहब, डिप्टी साहब को बोल दीजिए अल्लाम बदमाश ख़िदमत में हाज़िर है।”
लेकिन वो देखने में बदमाश नज़र नहीं आता था। कम से कम मुझको वो सिर्फ़ कोई पुरइसरार आदमी मालूम होता था। उसकी काली कफ़नी, काली तहमद और घनी गोल स्याह दाढ़ी उसके बारे में कोई अंदाज़ा नहीं होने देती थी और हैयत में वो कोई बेज़रर आदमी मालूम हो सकता था, लेकिन वो अपने हाथ में एक छोटी-सी कुल्हाड़ी भी रखता था। कुल्हाड़ी के फल पर स्याह कपड़े का गिलाफ़ चढ़ा रहता था। फल को खुला हुआ शायद किसी ने भी नहीं देखा था लेकिन इतना सब जानते थे, या समझते थे, कि कुल्हाड़ी वो जंगल के जानवरों से बचाव के लिए पास रखता है, और उसी से मुझे पता चलता था कि मेरे शहर के नवाह में जंगल भी है।
उन जंगलों से पकड़ कर वो तरह तरह के जानवर बड़े बाज़ार में लेता था। शायद यही उसका पेशा था। मैं अक्सर उसे देखता था कि वो अपनी मुक़र्ररा जगह पर किसी ऊँघते जानवर के गले या कमर में बंधी हुई रस्सी थामे खड़ा है और लोग उसके पास भीड़ लगाए हुए हैं। मैं भी उस भीड़ में घुस जाता और हम हर जानवर को हैरत से देहता था। एक दिन मैंने उसके पास बिज्जू देखा जिसके बारे में मशहूर था कि ताज़ा कब्रों में घुसकर मुर्दों का गोश्त खाता है इसलिए इसे क़ब्र बिज्जू भी कहा जाता था। साही भी मैंने अल्लाम ही के पास देखी और उसे अपने अंदाज़े से छोटा जानवर पाया। उस वक़्त एक मैंने सड़क के किनारे के दवा फ़रोशों के पास साही के सिर्फ़ काँटे देखे थे जो जादू टोने में इस्तेमाल किये जाते थे। मैंने अल्लाम के पास और भी बहुत जानवर देखे जिनमें बाज़ के मैंने सिर्फ़ नाम सुन रखे थे, बाज़ के नाम भी सुन रखे थे, बाज़ के नाम भी नहीं सुने थे और बाज़ के नाम ख़ुद अल्लाम को भी नहीं मालूम थे।
एक दिन मुझे वो अपनी मुक़र्ररह जगह पर इस हालत में खड़ा दिखायी दिया कि उसके कंधे पर रस्सी का लच्छा पड़ा हुआ था जिसके दोनों सिरे उसके सीने पर झूल रहे थे, चेहरे और हाथों पर लम्बी लम्बी ख़राशें थीं, कफ़नी भी कई जगह से फटी हुई थी, और वो मज़े ले ले कर बयान कर रहा था कि जंगल की एक अँधेरी खोह में उसे कुछ आहट मालूम हुई और वो बेधड़क खोह में घुस गया। अँधेरे में देखने की कोशिश कर रहा था कि अचानक कोई जानवर उस पर झपट पड़ा और उसे नोच खसोट कर खोह के किसी अंधरूनी मोड़ में ग़ायब हो गया।
“तो हमने भी घर का रास्ता लिया, “उसने अपनी कुल्हाड़ी को सहलाते हुए कहा, “लेकिन चलते चलते बोल आये कि चचा, आज तो तुमने हमारा मिज़ाज पूछ लिया लेकिन हम तुमको छोड़ेंगे नहीं। फिर आकर तुम्हारा मिज़ाज भी पूछेंगे। अभी चैन से अपने भट में बिराजो।”
और वाक़ई अगले हफ़्ते उसके गिर्द हमेशा से ज़्यादा मजमा इकठ्ठा था। मजमे की बातों से मालूम हुआ कि अल्लाम उस जानवर को पकड़ लाया है। लोग जानवर को पहचानने की कोशिश कर रहे थे। मैंने मजमे में घुसना चाहा लेकिन मुझे रोक दिया गया, बल्कि उस दिन किसी भी बच्चे को भीड़ में नहीं आने दिया जा रहा था। मैं एक तरफ़ खड़ा हुआ लोगों की बातों से उस जानवर की हेत का अंदाज़ा लगाने की कोशिश कर रहा था लेकिन मुझे इसके सिवा कुछ नहीं मालूम हो सका कि उसके पंजे अनोखी वज़ा के हैं और अल्लाम ले लाये हुए दुसरे जानवरों की तरह वो भी ऊँघ रहा है, और ये कि वो मादा है। अचानक मुझे फटी फटी चीखें सुनायी दी और लोग एक दुसरे पर गिरने लगे। इस भगदड़ में अल्लाम की आवाज़ बुलन्द हुई :
“कुल्हाड़ी...हमारी कुल्हाड़ी।”
मैं उस भगदड़ और उससे ज़्यादा उन हैवानी चीखों से ऐसा डरा कि वहाँ से सीधा घर भाग आया।
वो शायद आख़िरी मौक़ा था जब अल्लाम किसी जानवर को जंगल से बाज़ार में लाया था। उसके बाद वो मुझे लम्बे लम्बे वक़्फ़ों से चार पाँच मर्तबा इधर-उधर तन्हा घूमता नज़र आया। आख़िर आख़िर में उसने दाढ़ी छदरी और बेवज़ा सी हो गयी थी और वो चलने में कुछ डगमगाने लगा था। उसने हमारे यहाँ आना भी छोड़ दिया था। बड़े बाज़ार में मेरी दिलचस्पी के नये-नये लोग नज़र आने लगे थे। अब मुझ अल्लाम का ख़्याल सिर्फ़ उस वक़्त आता था जब कभी-कभी राह चलते मुझको उसका बेटा दिखायी दे जाता। वो जवान हो चला था और बिल्कुल बाप की शबीह निकल रहा था।
ये बेटा मेरा हमउम्र था। मुहल्ले के उन लड़कों में कभी-कभी वो भी शामिल होता था जीने साथ मैं बचपन में खेला करता था, लेकिन हमारी टोली उससे खींची खींची रहती इसलिए कि उसको बहुत जल्दी ग़ुस्सा आ जाता था और आपसी हाथा पायी में वो अपने हरीफ़ों को काट खता था। हम बच्चों में मालूम नहीं किस तरह ये बात मशहूर हो गयी थी कि उसके पैदा होने के थोड़े ही दिन बाद उसे भेड़िये उठा ले गये थे। अल्लाम कई बरस तक उसे जंगल में जा जा कर ढूंढता रहा और आख़िर एक दिन उसे भेड़ियों से छुड़ा लाया। हमारी टोली के बाज़ बड़े लड़कों ने यहाँ तक बताया, बल्कि अपनी आँखों से देखने का दावा किया, कि घर लाये जाने के बाद भी बहुत दिन तक अल्लाम का बीटा चारों हाथ पैरों पर चलता और कच्चे गोश्त के सिवा कुछ नहीं खाता था। और एक लड़के ने बताया कि उसी ज़माने में अल्लाम के के माकन के क़रीब भेड़िये के पंजों के निशान मिले और ज़माने से अल्लाम हर वक़्त अपने पास कुल्हाड़ी रखने लगा। हमने तय कर लिया कि लड़के बिलकुल सच कह रहे हैं, और अल्लाम के बेटे ख़ौफ़ ख़ाने लगे। लेकिन मेरी कभी उससे लड़ाई हुई। वो मुझसे नहीं उलझता था, शायद इस वजह से कि कभी-कभी वो भी अपने बाप साथ हमारे यहाँ आता था। कभी अकेला भी आता और मेरे बाप से रोकर कहता :
“ अब्बा बंद हो गए।”
जवानी का कुछ ज़माना गुज़रते गुज़रते उसकी दाढ़ी खूब घनी गोल हो गयी थी और कभी-कभार वो काली कफ़नी पहनने लगा था। उस वक़्त उसे देख कर ऐसा मालूम होता था कि अल्लाम बूढ़े से जवान हो गया है। लेकिन उससे मेरी साहब सलामत भी नहीं होती थी बल्कि अब वो मुझे शायद पहचानता भी नहीं था और बेताअल्लुक़ी के साथ मेरे क़रीब से गुज़र जाता था।
उसके बाद शायद सिर्फ़ एक दो बार मुझे सरसरी सा ख़्याल आया कि अल्लाम का बेटा भी कहीं नज़र नहीं आता।
मैं दिल ही दिल खुश हो रहा था कि मेरी याददाश्त कुछ-कुछ वास आ गयी है और मैं उस ज़माने की कुछ दूसरी बातें याद करने की कोशिश करने लगा जिसमें मुझे बराए नाम सी कामयाबी भी हो रही थी। इतने में अचानक मुझे ये एहसास हुआ कि मेरा दोस्त बाज़ार के किसी मोड़ पर मुझसे रुख़सत हो चूका है। मुझे बाहर निकले हुए बोहोत देर हो गयी थी। घर वालों की परेशानी का ख़्याल करके और कुछ फ़ज़ा की बढ़ती हुई धुँधलाहट की वजह से, जिसमें मुझे दूर की चीज़ें साफ़ नज़र नहीं आती थी, मैं तेज़ क़दमों से वापस हुआ। उसी में अपने मकान के क़रीबी चौराहे से कुछ आगे पढ़कर मुझको सड़क के दूसरे तरफ़ खड़ा हुआ वोकल बड़े बाज़ार में देखा था मुजावर अस आदमी, या यूँ कहना चाहिए कि उसका लिबास, एक मर्तबा फिर दिखायी दिया, और एक मर्तबा फिर मुझे उस पर अल्लाम का शुबह हुआ और एक मर्तबा फिर मुझ आप ही आओ हाँसी आ गयी। फिर मुझे अल्लाम का बेटा याद आ गया और मेरी हाँसी आप ही आप ग़ायब हो गयी।
दूसरे दिन वो फिर मुझे उसी जगह खड़ा दिखायी दिया। मैं सड़क के दुसरे किनारे पर था लेकिन सूरज की रोशनी में उसको मैंने ज़रा ग़ौर से देखा। ये वो स्याहपोश, सुरमा लगी हुई आँखों वाला आदमी नहीं था जिसे मैंने कल बड़े बाज़ार में देखा था। अगले कुछ दिनों में कई बार मैंने उसको देखा कि अपने मुक़र्ररा जगह पर ख़ामोश खड़ा हुआ है और आते जाते राहगीरों को एक नज़र देख लता है। मैंने य भी देखा कि वो काली कफ़नी पहने रहता है। लेकिन दो एक बार मैं उसके कऱीब से गुज़रा तो उसने मुझे बेतल्लुक़ी के साथ देखा, जिस तरह दूसरे राहगीरों को देखता था।
उसी ज़माने में मेरे घर के एक बच्चे ने मुझे बताया कि मैं सड़क पर अपने आप से बातें करता हुआ चलता हूँ। ये बुरी ख़बर थी जो घर वालों ने शायद जान बूझ कर मुझसे छिपा राखी थी। मुझे खुदसे बातें करने वाले लोग सनकी, और सनकी से भी ज़्यादा बेअक़्ल, मालूम थे। मैंने बाहर निकलना बंद कर दिया और निकलता भी तो रास्ते भर यही ग़ौर करता चलता कि अपने आप से बातें तो नहीं कर रहा हूँ। इसमें अक्सर मुझे अपने आस पास की ख़बर नहीं रहती थी।
एक दिन मैं घर वापस आ रहा था। चौराहे से कच आगे बढ़कर अचानक मुझे शुबह हुआ कि अभी-अभी मैंने अपने आप से कुछ कहा है। मैं ठिठक कर रुक गया और सोचने लगा कि मैंने क्या कहा है। इतने में मुझे अपने पुश्त पर एक आवाज़ सुनायी दी :
“सलामत रहिये, सलामत रहिये।”
फिर लकड़ी की किसी चीज़ के गिरने की सी आवाज़ आयी और मैंने मुड़कर देखा। कफ़नी वाला दोनों हाथों से मुझे सलाम करता हुआ मेरी तरफ बढ़ रहा था, लेकिन दो ही क़दम के बाद वो लड़खड़ाया और ऐसा मालूम हुआ कि वो एक साथ कई तरफ़ चाह रहा है। फिर वो ज़मीन पर गिर गया। कई राहगीर उसकी तरफ़ लपक पड़े। मैं भी लपका। हमने मुश्किल से उसे उठा कर खड़ा किया। लेकिन उसका पूरा बदन थरथरा रहा था और उसी हालत में उसने जैसे अपने आप आप से कहा :
“चल नहीं पाते है हम। बस खड़े रहते हैं।” फिर वो बेहोश सा होने लगा।
राहगीरों में कोई उसे पहचानता नहीं था और किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि उसका क्या किया जाये। आखिर मैंने कहा:
“मैं इन्हें जनता हूँ। इनको मेरे यहाँ पहुँचा दीजिये।”
वो लोग मुझे जानते थे। कई आदमियों ने उसे क़रीब क़रीब लटका कर मेरे यहाँ पहुँचाया और मैंने उसे एक कुर्सी पर बिठवा दिया।
उन लोगों के जाने के बाद मैं उसे कहने के लिए कोई बात सोच रहा था कि वो बैठे बैठे इस तरह एक तरफ़ झुकने लगा कि कुर्सी के दोपाये ज़मीन से उठ गये। मैंने बढ़कर उसे गिरने से रोका। कुछ उसने भी कोशिश करके ख़ुद को सँभाला और बोला :
“बैठ भी नहीं पाते हैं हम। बस खड़े रहते हैं या लेट सकते हैं।”
कमरे में लेटने के लिए कोई चीज़ नहीं थी। मैं सोच रहा था कि घर के अंदर से कोई चारपाई मँगवा लूँ कमरे के फ़र्श ही पर बिछौना कर दूँ। इतनी देर में वो मेरा सहारा ले कर उठ खड़ा हुआ और अपने बदन को साध कर के बोला :
“बस छोड़ दीजिये।”
उसका बदन आहिस्ता से थरथराया और मैंने पूछा :
“गिरोगे तो नहीं?”
“नहीं, खड़े रहेंगे।"
मैंने उसे धीरे-धीरे करके छोड़ दिया। और वाक़ई वो अपनी जगह पर जम कर खड़ा हो गया, फिर कुछ फ़ख्र के लहजे में बोला :
“दिन भर खड़े रह सकते हैं इसी तरह।”
मेरी मुश्किल ये थी कि मुझको चलते रहने में इतनी थकन नहीं होती थी जितनी खड़े रहने में। लेकिन मैंने दूसरी खुर्सी पर बैठ जाने की ख़्वाहिश को दबाया और पूछा :
“ये तकलीफ़ कबसे हैं ?”
“बरसों हो गये,” उसने तजव्ज्जही से जवाब दिया।
उसके बाद देर तक वो आँखें सिकुड़ सिकुड़ कर पूरे कमरे को देखता रहा। आख़िर बोला :
“बदल गया।”
“ज़माना भी तो बदल गया,” मैंने कहा, फिर पूछा, “तुम्हारे बाप कैसे हैं ?”
“हमारे बाप ? कब के मर खप गये।”
“उन्हें क्या हुआ था ?”
“बस बुढ़ापा,” उसने फिरसे उसी बेतव्जही के साथ जवाब दिया, एक बार फिर पूरे कमरे को देखता रहा। आखिर बोला :
“ज़्यादा बदल गया। जब हम यहाँ आते थे...” फिर उसे बात बदली और बताया, “दिखायी भी कम देता है हमको।”
क्या ये आदमी हर हक़ीक़त को क़बूल कर चुका है ? मैंने दिल ही दिल में कहा और उससे रकश-सा महसूस किया, फिर पुछा :
“तुम वहाँ. . .चौराहे के पास किसके साथ आये थे ?”
“हाँ,” उसने चौक कर कहा, “वो हमें लेने आ गयी होगी। परेशां हो रही होगी।”
“दिखवा लूँ।”
उसी वक़्त बरामदे में आहाट हुई और मोहल्ले के एक लड़के ने खुले हुए दरवाज़े से कमरे में झाँक कर किसी से कहा :
“यहीं हैं। ये क्या खड़े हैं।”
उसके पीछे एक बुरक़ा पोश औरत थी। लड़का वापस चला गया और वो झिझकते झिझकते कमरे में दाख़िल हुई। मेरे मेहमान को देखते ही उसने ज़रा तंज लहजे में कहा :
“परेशान करके रख दिया हमको। अब से घर करो।”
“तो क्या हुआ,” वो इतमिनान से बोला, “ये भी अपना ही घर है।” फिर उसने मेरी तरफ़ इशारा किया, “इनके बहुत एहसान हैं हम पर। तुम्हारे किस्से में बंद हुए थे जब भी ने ज़मानत ली थी।” तब औरत ने मुझको सलाम किया।
बरामदे में फिर आहात हुई। मोहल्ले का लड़का कमरे में दाख़िल हुआ। उसके हाथ में फल पर गिलाफ़ चढ़ी हुई कुल्हाड़ी थी।
“ये वहाँ गिर गयी थी,” उसने कहा और कुल्हाड़ी औरत के हाथ में दे कर वापस चला गया।
मैं देर तक ख़ामोश खड़ा रहा। वो भी चुपचाप सीधा खड़ा था लेकिन उसकी गरदन झुकी हुई और आँखें बंद थीं। मैंने उसे ग़ौर से देखा, फिर मुझे औरत की आवाज़ सुनाई दी।
“जगा दीजिये। ये इसी तरह सो जाते हैं, खड़े खड़े।”
मुझको ताज्जुब नहीं हुआ। मेरे महोल्ले का एक पहाड़ी पहरेदार भी खड़े खड़े कुछ देर को सो जाया करता था, और कहता था इस की दो तीन जपकीयों में उसकी रात भर की नींद पूरी हो जाती है। मैंने औरत की तरफ देखा। उसे वापसी की जल्दी मालूम हो रही थी, फिर भी मैंने उससे पूछ लिया :
“इनका बीटा आजकल कहाँ है ?”
“उसी का तो फेर है सारा,” औरत ने बताया, “रात को घर में सोया, सवेरे बिस्तर ख़ाली था। वो दिन और आज का दिन, उसी को ढूंढने निकलते हैं। चल पाते नहीं, हम किसी तरह पकड़ा के बाहर ले जाते हैं। कभी इस सड़क पर, कभी उस सड़क पर, घंटों खड़े रहते हैं। जंगल जाने की भी ज़िद करते हैं। बताइये, जंगल अब इनके लिए कहाँ से लाएँ ? किसी ज़माने में जंगल से जानवर। एक बार किसी जानवर ने... ”
वो अभी तक ऊँघ रहा था लेकिन अब चौंका और औरत को झिड़क कर बोला :
“इन्हें क्या बता रही हो, क्या ये जानते नहीं ?”
औरत ख़ामोश हो गयी। मैंने पूछा :
“ये रहते कहाँ हैं ?”
औरत ने बताया कि उसका मकान के पिछवाड़े के एक गली में है और आधे से ज़्यादा गिर चुका है। मकान तक पहुँचने का रास्ता कई गलियों से होकर था। औरत ने तफ़सील से पता बताया था मगर मैं उसे याद करने से पहले ही भूल गया, मेरे मकान की पुश्त पर तंग और नीम तारिक और बाज़ बाज़ छत्तेदार गलियों का जाल सा बिछा हुआ था। मैंने उन गलियों और छत्तों में से बाज़ के सिर्फ़ नाम सुन रखे थे, बाज़ के नाम भी नहीं सुने थे। मुझे अपने महरूम बाप का कहना याद आया कि हमारे मोहल्ले की गालियाँ आदमी के दिमाग़ की तरह पेचदार है और कोई अजनबी उस भूल भुलैया में फँस कर खुद से बाहर नहीं निकल सकता। मैं अभी से अपने आप को उस भूल भुलैया में फँसा हुआ, बल्कि उससे बाहर निकलने की कोशिश में नाकाम रहता हुआ, महसूस कर रहा था। इतने में औरत ने उससे कहा :
“अच्छा अब चलते हो कि नहीं ? देखते हो बेचारे कब से खड़े हुए हैं ?”
“मेहरबानी, मेहरबानी,” वो दोनों हाथों से मुझको सलाम करता हुआ बोला और औरत का सहारा लेकर कमरे से निकलने लगा, फिर अचानक रुक गया और हाथ इधर-उधर बढ़ाकर घबराये हुए लहजे में बोला :
“कुल्हाड़ी...हमारी कुल्हाड़ी।”
“ये है, हमारे पास,” औरत ने कहा और कुल्हाड़ी उसे पकड़ा दी।
फाटक तक मैं दोनों के साथ गया। जाते जाते भी वो कह रहा था लेकिन उसकी आवाज़ घुटी घुटी सी थी। शायद मुझे दुआएँ भी दे रहा था। मुझको बस इतना याद है कि फाटक पर पहुँच कर उसने ये कहा था :
“छोटे साहब नहीं दिखायी दिए। अब तो बड़े हो गये होंगे माशा अल्लाह।”*
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